क़यामत पूरी नहीं आती
फुटकर-फुटकर आती है
ज़िंदगी के कुकून को
इत्मिनान के साथ
नाज़ुक कीड़े में
तब्दील होते देखने में
मज़ा आता है उसे
क़यामत
सिर्फ देखती है लगातार
टुकुर-टुकुर
बिना अतिरिक्त प्रयास के
जानती है
ये खुद ही खा जायेंगे खुद को
इसलिए अलसा जाती है
क्यों बेवजह हिलाए हाथ-पैर
दीपक मशाल